ऋतु चोपड़ा की पेंटिंग्स की 'कहे कबीर' शीर्षक से नई दिल्ली की अपर्णा कौर एकेडमी ऑफ फाइन ऑर्ट्स एण्ड लिटरेचर की कला दीर्घा में 20 अक्टूबर से आयोजित हो रही एकल प्रदर्शनी ने एक फिर कबीर की प्रासंगिकता की जड़ों के गहरे तक धंसे / जमे होने को प्रकट किया है | उल्लेखनीय है कि कबीर की रचनाएँ काव्यत्व और कथ्य की दृष्टि से तो चुनौतीपूर्ण रही ही हैं, उनकी रचनाओं को किसी भी अन्य माध्यम में ट्रांसलेट करना तो और भी अधिक चुनौतीभरा रहा है | इसके बावजूद, विभिन्न माध्यमों के प्रख्यात लोगों ने कबीर की रचनाओं को अपने-अपने तरीके से देखने / परखने और संयोजित करने के प्रयास किए हैं | यहाँ यह याद करना प्रासंगिक होगा कि रवींद्रनाथ टैगोर, लिंडा हेस, निनेल गफुरोवा, अली सरदार जाफ़री आदि ने कबीर के पदों को चुन चुन कर अपनी-अपनी भाषाओं में अनुदित किया है और कुमार गंधर्व जैसे महान गायक ने अपने तड़प भरे, आहाल्दक और प्राण उड़ेलने वाले स्वर में उन्हें गाया है | इसका कारण कबीर के संतत्व की विरलता की बजाए उनके कवित्व की विरलता में खोजा / पाया गया है | कबीर की इसी सृजन-शक्ति ने उन्हें वर्तमान में भी प्रासंगिक बनाए रखने में सर्वाधिक भूमिका निभाई है |

युवा चित्रकार ऋतु चोपड़ा द्वारा उनकी रचनाओं के संदर्भों पर आधारित पेंटिंग्स बनाना और प्रदर्शित करना उनकी प्रासंगिकता के बने रहने का ही एक उदाहरण है | वास्तव में कबीर के कवित्व ने ही उनके दर्शन को सर्वाधिक लोक-व्याप्ति और लोक-दृष्टि दी, जिसके चलते वह आज भी प्रासंगिक और चुनौती बने हुए हैं | अलौकिक, अमूर्त वस्तु को लौकिक, मूर्त वस्तु में बदलने की अप्रतिम क्षमता कबीर में थी और कविता के लिए यह सबसे अधिक आवश्यक भी है, क्योंकि स्वयं कविता लौकिक या ऐहिक वस्तु है | ऐहिक होकर ही वह ऐसी 'आँख' बनती है जो अपनी मर्मबेधिता से आर-पार देखती है और अपने छोटे से पटल पार वे सारे दृश्य अंकित करती है जो पाठक की आँख में परावर्तित होते हैं | पारदर्शिता आखिर कहते किसे हैं - जो प्रकाश के पीछे छिपे अँधेरे को या अँधेरे के पीछे छिपे प्रकाश को देख या दिखा सकती है | कबीर की रचनाओं को प्रासंगिक बनाए रखने में वास्तव में कबीर की मानवीय व जटिल द्वंद्वपूर्ण रचना-प्रक्रिया या बुनावट का है जो उनके काव्य में साँस की तरह चलती तो है, पर दिखाई नहीं देती है | क्योंकि यह कविता ही नहीं उनका जीवन भी है जो एक जटिल बुनावट की कहानी है |

ऋतु चोपड़ा का कबीर से परिचय हालाँकि आबिदा परवीन की आवाज़ के ज़रिये हुआ; आबिदा परवीन की आवाज़ के जादू से प्रभावित होकर उन्होंने कबीर की साखी सुनना शुरू किया तो फिर कबीर उनकी आत्मा और उनकी सोच में रचते-बसते चले गये | कबीर का आत्मा और सोच में रचना-बसना उनके केनवस पर ट्रांसफर हुआ तो उनकी पेंटिग्स एक दर्शक के रूप में हमें व्यक्तिगत आत्मविश्लेषण के लिए प्रेरित करती हुई लगती हैं | कबीर की रचनाओं से प्रेरणा पाकर बनी-रची ऋतु की पेंटिंग्स देखते हुए हम ख़ुद को अपने अंदर देखते हुए पाते हैं | कबीर की रचनाओं के प्रभावों और / या अर्थों को विविधतापूर्ण प्रतिरूप रचते हुए ऋतु चाक्षुक बिम्ब की भाषा में ढालती हैं | ऋतु की पेंटिंग्स में प्रकट होने वाली आकृतियाँ और वह परिदृश्य जिसमें वे स्थित हैं, किसी पूर्वस्मृति की आभा से दीप्त लगती हैं | पेंटिंग्स के फ्रेम में जो कहा गया बताया गया है या लगता है, कई बार हम अपने आप को उस फ्रेम से बाहर जाते हुए भी पाते हैं | ऋतु भले ही यह कह रहीं हों कि फलाँ पेंटिंग कबीर के फलाँ दोहे या साखी पर आधारित है, पर उनकी पेंटिंग में कबीर की सारी सोच और उनका सारा दर्शन प्रतिध्वनित हो रहा होता है | शायद यही कारण है कि ऋतु की पेंटिंग्स अभिव्यक्ति के स्तर पर कहीं कहीं इंस्टालेशन का-सा आभास देती हैं | उनकी पेंटिंग्स में - दूसरी, तीसरी, चौथी ....बार देखे जाने पर अनुभव स्थानांतरित होते जाते हैं, बदलते जाते हैं और वह जैसे एक फ्रेम में होने के बावजूद स्पेस में होने का आभास देते हैं |

ऋतु चोपड़ा को कला का संस्कार उज्जैन में मिला | कला की उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं प्राप्त की है, लेकिन कला के प्रति अपनी अभिरुचि को देखते हुए जब उन्हें लगा कि उन्हें कला के तकनीकी पक्ष से भी परिचित होना चाहिए तो कला की प्राथमिक शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए उन्होंने कला शिक्षक और कलाकार चंद्रशेखर काले से मार्गदर्शन प्राप्त किया | इस बीच लिंडा हेस की पुस्तक 'सिंगिंग एम्प्टीनेस' उन्होंने पढ़ी, जिसने ऋतु को स्व से परिचित कराया | लिंडा हेस ने भारत के संत काव्य का विषद अध्ययन किया है और उनके उस विषद अध्ययन को देख / जान कर ऋतु ने जीवन और समाज को आध्यात्मिक नज़रिए से देखना / पहचानना शुरू किया | यह आध्यात्मिक नजरिया कब उनकी पेंटिंग्स में आ पहुँचा, और पेंटिंग्स में अभिव्यक्त होने वाले विषयों, विवरणों, रूपों व रंगों को निर्देशित व नियंत्रित करने लगा, यह ख़ुद उन्हें भी पता नहीं चला | उनके आध्यात्मिक नज़रिए में जो मानवीय पक्ष रहा, वह उन्हें कबीर के पास ले आया | कबीर के दोहे व साखियाँ वह प्रतिदिन रेडियो पर सुबह सुनती ही थीं | ऋतु की पेंटिंग्स के विषय अध्यात्म से जुड़े तो थे ही: लिहाजा धीरे-धीरे कबीर की रचनाओं ने उनके केनवस पर जगह बना ली | 1966 में जन्मी और उज्जैन जैसे कला व अध्यात्म से परिपूर्ण शहर में पली-बढीं ऋतु ने उज्जैन के अलावा देवास, इंदौर, जबलपुर, पुणे, मुंबई, नोएडा आदि में आयोजित समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित किया है | वह उज्जैन और दिल्ली में अपनी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनियाँ भी कर चुकीं हैं | इसी वर्ष मई व जुलाई के बीच अमेरिका के सनफ्रांसिस्को में आयोजित हुई एक बड़ी समूह प्रदर्शनी में भी उनकी पेंटिंग्स प्रदर्शित हुईं |
ऋतु चोपड़ा की अपर्णा कौर एकेडमी ऑफ फाइन ऑर्ट्स एण्ड लिटरेचर की कला दीर्घा में 20 अक्टूबर से आयोजित हो रही तीसरी एकल प्रदर्शनी उनकी कला-यात्रा के नए आयामों से परिचित होने का मौका तो हमें देगी ही, कबीर की रचनात्मक प्रासंगिकता का एक और उदाहरण व सुबूत भी प्रस्तुत करेगी |
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‘ Taj Mahal the most recent but
one of the most beautiful wonder of the wortd, was built by the Fifth Mughal
Emperor Shah Jahan Who was ruled in India from 1628 to 1658 In memory of his
second wife ‘Mumtaz Mahar Mumtaz was a Muslim Persian Princess died in child-
bed in 1630 while giving birth to their fourteenth chil Shah Jahan began to build the
Taj Mahal (Usually translated Crown Place’) The following year. It took twenty two
years and the work of over tventy thousands workers and craftsmen to finish and
One mousand elephants were needed to carned out the matenals from all over
India to the tomb’s site in Agra on the bank of the Yamuna River about 120 miles
south of New Delhi The famous white marbles dome with its four flanking minarets
rise from a white marble terrace atop a red sandstone base Inside the dome is the
jewel-inlaid cenotaph of the queen The grave of Shah Jahan was added to it later
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